बुधवार, 29 मार्च 2017

मैं गरीब हूँ न (कहानी)

Posted by अवनीश कुमार मिश्रा on 2:54 am with No comments
रात का वक्त है आकाश में बादल गड़गड़ा रहे हैं मगर पानी नहीं बरस रहा है बिजली चमक रही है |
चारो ओर सन्नाटा है भला रात बारह बजे कौन जागे सभी गहरी नींद में सो रहे हैं गाँव के बीचो - बीच में एक झोपड़ी है वहाँ रात बारह बजे भी आवाज आ रही है परन्तु वो आवाज , आवाज नहीं इक तड़पन थी जो हर किसी के पास नहीं होती , कोई उसे पाना भी नहीं चाहता , हाँ मगर देखा बहुतो ने है कुछ ने सिर्फ देखा है कुछ ने अनुभव भी किया है |
मगर हर कोई उससे दूर ही रहना चाहता है उसमें जो कुछ है बड़ा ही बुरा किस्म का है उस बुरे चीज को कौन - सा जीव लेना चाहेगा हमारे ख्याल से तो कोई नहीं ये है ही ऐसी चीज
टूटी झोपड़ी में बैठी उस बुढ़िया को शायद ये तड़पन उपहार में मिली थी कभी भी सुख से न रह सकी |
बेटा मैं मर जाऊँ तो अफसोस मत करना मैं तो तेरे लिए कुछ न सका इसका मलाल है मुझे पर तेरी माँ तो तेरे पास है न बेटा वही तेरा परवरिश दबी हुई जुबान में देवीदीन अपने बेटे से कह रहा है |
देवीदीन पचास साल का है मगर लगता अस्सी साल जैसा है बेचारे पर गरीबी की मार है बचपन से लेकर जवानी और अब तक गरीबी से जूझता ही रहा |
अरे पचास साल की उम्र में जिस आदमी की कमर झुक गई हो बाल पक गये हो खाल लटक गई हो तो लगता है कि बेचारा गरीबी का मारा है
सौ में अस्सी तो ऐसे ही होते हैं |
देवीदीन को शादी के पच्चीस साल बाद औलाद हुई तो जीने का मकसद मिला बड़े प्यार से उसका नाम रामू रखा लेकिन बेटा हुआ तो सिर्फ पाँच साल का साथ मिला आज देवीदीन जा रहा है उसे पश्चाताप है कि अपने मासूम बच्चे के लिए मैं कुछ नहीं कर पाया |
झोपड़ी इधर - उधर झूल रही है उसी के अन्दर बैठे हुए देवीदीन का छोटा परिवार |
न बाबूजी ऐसा न कहिए आपको कुछ न हो सकता माँ कहिए न बाबूजी ऐसा न बोले बेटे ने दुःख भरे स्वर में अपनी माँ से कहा |
ऐसा क्यों कहते हो बेटे से सुबह होते ही हम वैद्य जी को बुला लायेंगे आपको कुछ नहीं होगा बुढ़िया देवीदीन से बोली |
कहाँ से वैद्य जी को लाओगी पहले से ही उनके पैसे उधार है धीरे स्वर में देवीदीन गम्भीरता से बोला |
रात सुबह की ओर अग्रसर होने लगी बेटा सो चुका है मगर देवीदीन एवं उनकी पत्नी दोनों रात - भर सुख दुःख की बातें करते रहे सुबह चार बजे बुढ़िया को हल्की आँख लगी फिर जागी तो देखते ही सन्न रह गयी शरीर में मूर्छा सी उत्पन्न हो गया अँधेरी काल रात जो उसे काँटे की तरह चुभ रही थी अब कुछ उजाला देने पर भी चुभ रही है |
वो सभी वादे कहाँ गये जो अभी चंद घण्टो पहले दिये थे उसे यह भी नहीं याद रहा कि अपने बेटे को जगा सके कि तेरे पिताश्री अब इस दुनिया में नहीं रहे |
इसी बीच बेटे की आँख खुली तो स्तब्ध रह गया बाबूजी पिताजी कहकर पुकारने लगा और बिलख बिलखकर रोने लगा |
बुढ़िया के आँखों में आँसू है लेकिन वह बिलख न सकी पता नहीं क्या समा गया उसके दिमाग में बेचारी पागलों की तरह टुकुर टुकुर इधर उधर देख रही है |
धीरे धीरे सूर्य ने अपनी किरण फैलाई उजाला हुआ गाँव वालों ने दिनचर्या शुरू कर दिया लेकिन कोई उसके घर नहीं आया ऐसा नहीं कि गाँव वालों ने बच्चे का रोना नहीं सुना था
गरीबों के घर कोई इन मौकों पर इसलिए नहीं जाना चाहते कि वहाँ पर कुछ लगाना न पड़े शायद इसीलिए आज कोई उसके द्वार तक नहीं आया |
ऐसा नहीं कि उस गाँव में और गरीब नहीं है पाँच छः घर और है लेकिन बड़े लोगों के डर से वे नहीं जाना ही उचित समझ रहे है जा बेटा जा कुछ बड़े लोगों को पड़ोस से बुला ला तू अकेला क्या कर सकेगा बुढ़िया ने रुआंसी होकर कहा
रामू का वैसे ही रो रोकर बुरा हाल था परन्तु और कोई चारा भी तो न था रोते हुए माँ से बोला जाता हूँ माँ |
रामू ने पड़ोस में जाकर एक घर में दरवाजे के पास से आवाज लगायी चाचा चाचा
क्या है रे सुबह सुबह दरवाजा खटखटा रहा है तेरे बाप को कुछ हो गया क्या तू चार घण्टों से रो रहा है |
हाँ रामू ने रुआंसू स्वर में कहा
और कुछ देर बाद फिर बोला माँ ने आपको बुलाया है|
इस कहानी को अगले अंक में पूरा पढ़ें

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

होली का त्यौहार है आया (कविता)

Posted by अवनीश कुमार मिश्रा on 10:41 am with No comments

होली का त्यौहार है आया |

खुशिया झोली भरकर लाया |

बच्चो के मन में उल्लास जगा  , अब हम नाचें

गायेंगें|

वृद्ध ,  जवाँ भी सोंच रहे कि जमकर मौज

उड़ायेंगें |

बच्चों ने साफ कह दिया , सबका चैन उड़ायेंगें,

अबकी बार होली खेलने दूर - दूर तक जायेंगे|

कोई कहता है इस होली में महँगे कपड़े लाऊँगा |

कोई कहता है इस होली में गुझिया खूब खाऊँगा |

कोई कहता है इस होली को अपने घर नहीं

मनाऊँगा,

होली की छुट्टी पाते ही नानी के घर जाऊँगा|

गाँव के जिम्मेदार लोगों ने यह विचार बनाया है,

अबकी बार की होली में अबीर उड़ायेंगें|

खतरनाक रंगों को तजकर ,

प्राकृतिक होली मनायेंगें|

अवनीश कुमार मिश्रा ने भी सोचा है कि

जमकर धूम मचायेंगें |

गर न ला न सके अबीर तो होली नहीं मनायेंगें